डर लगता है . . . . . .




 कविता श्‍वेता जिन्‍दल 

जब उठती है नही तमन्नाये
और दिल चाहता है उड़ जाने को
ये सोच कर की कही तोड़ ना दू समाज के इस पिंजरे को
मुझे अपने आप से डर लगता है 

जब लक्ष्य ढूढने को उठते है कदम
और देखती हु बंदिशों में थमी जिंदगीको
ये सोच कर की कही छेद न दू द्वंद खुद में
मुझे अपने आप से डर लगता है

जब देखती हु अपने आप को
अपना अस्तित्व खोजते हुए
ये सोच कर की कही झुठला न दू खुद को
मुझे अपने आप से डर लगता है

जब याद आते है अनकहे अधूरे सपने
और उन्हें पूरा करने में असक्षम मैं
ये सोच कर की कही दफ़न न कर दू उन्हें अपने अन्दर
मुझे अपने आप से डर लगता है





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शैल सूत्र स्‍नेही

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