शैल सूत्र पर आपका स्‍वागत है। आपकी हर विधा में रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी । 
हमारा पता है
 सम्‍पादक,  शैल सूत्र,
  कार रोड, बिंदुखता,
  पो0 लालकुआ, जिला नैनीताल
  उतराखण्‍ड-262 402



सन् 1947--- आशा शैली




बात 1947 के शुरू के दिनों की है। हमारे घर के बाहरी कमरे में एक महात्मा रहते थे, जिन्हें सब अवधूत जी कहते थे और इस बाहरी कमरे को बैठक। अवधूत जी पूरे शरीर पर राख मले रहते और सिर पर जटाओं का बड़ा-सा जूड़ा। सिर्फ लाल रंग का एक लँगोट पहनते थे। उनके न घर में आने का समय था, न जाने का। पता नहीं वे कब घर आते, कब घर से जाते। बस कभी-कभी माँ से खाने को कुछ माँग लेते। यह याद है कि मुहल्ले की औरतें जब उनके पाँव छूतीं तो वे उन्हें बहुत बुरा-भला कहते थे।
परन्तु मुझे यह तो अच्छी तरह याद है कि हल्की सर्दी थी, क्योंकि सुबह-सवेरे, नाश्ते के बाद मैं माँ के साथ छत पर थी। मेरी माँ गुलाबी रंग का रेशमी सूट पहने, अपने बालों का पानी तौलिए से झाड़ रही थी। पास ही पड़ी बान की खाट पर उसका स्वेटर रखा हुआ था, जिसे वह बाल झाड़ कर पहनने वाली थी। तभी हमने देखा, सीढि़यों से धड़धड़ाते हुए अवधूत महात्मा जी छत पर चढ़ आए। वह बहुत उतावली में थे। माँ उन्हें इस हालत में देख कर हड़बड़ा गई, क्योंकि वे कभी-भी घर के भीतर नहीं आते थे ‘‘क्या हुआ अवधूत जी?’’ माँ ने प्रश्न कर दिया।
‘‘भक्तिन वीरां बाई, मेरी बात ध्यान से सुन! यहाँ पर बहुत जबरदस्त मार-काट मचने वाली है। आदमी ऐसे काटे जाएँगे जैसे कसाई बकरे काटता है, हो सके तो तू अपने बच्चों को बचा ले। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी यहाँ से निकल जाओ।’’ वह एक ही साँस में बोल गए।
मेरी माँ! जिन्हें हम माताजी कहा करते थे, हक्की-बक्की उनका मुँह देख रही थी। उसे इस बात में कुछ भी झूठ इसलिए नहीं लगा, क्योंकि नित्य ही देहाती क्षेत्रों से उजड़ कर आने वाले लोग रावलपिण्डी शहर में आ रहे थे। पूरे शहर की तरह हमारे घर के बाहर भी, सड़क के किनारे, चैबीसों घण्टे चूल्हा जलता रहता था और उस पर या तो मेरी माँ के दहेज के बड़े पतीले में दाल चढ़ी रहती या मुहल्ले की औरतें बड़ा सा तवा रखकर रोटियाँ बनाती रहतीं। मन्दिरों और गुरुद्वारों में तो लंगर लगे ही हुए थे।
रात को माँ ने पिता जी से कहा, ‘‘क्यों न हम हरिद्वार हो आएँ?’’ माँ को पता था कि पिताजी जनसंघ के कर्मठ कार्यकर्ता हैं और वे पलायन की बात को कभी नहीं मानेंगे।
फिर पता नहीं माँ ने पिताजी को किस तरह से मनाया कि हमारा अम्बाला जाना तय हो गया, जहाँ मेरे ताऊजी रहते थे। उन्हीं दिनों गाँव से मेरी दादी मय मेरे तीनों चाचा और एक अदद बुआ के हमारे घर, रावलपिण्डी शहर में आ गईं। दादा जी गाँव ही में रह गए थे। बड़ी हवेली और पैलियों ;खेतोंद्ध का मोह उनसे नहीं छूटा। हमारे गाँव में भी दंगे भड़क रहे थे और मेरी बुआ जवानी की दहलीज पर पाँव रख चुकी थी। दादी ने रावलपिण्डी शहर को सुरक्षित समझा। बड़े चाचा सोमप्रकाश जी ने हमारी डेयरी सँभालने की बात को मान लिया। इस समय हमारी डेयरी में 25 भैंसे, 8 गउएँ और चार घोडि़याँ थीं जिन्हें हमारे मुसलमान नौकर देखा करते थे।
उन दिनों डेयरी बहुत सूनी लगती थी, पिताजी दोनों मुसलमान नौकरों के परिवारों को अपनी बग्घी में बैठाकर खुद गाड़ी हाँककर उनके मुहल्ले में छोड़ आए थे, किन्तु दोनों नौकर डेयरी के एक कमरे में ही थे। इतने पशु देखने के लिए मेरे पिता और चाचा कम पड़ते। नौकरों को आतंकवादियों से बचाने के लिए उन्हें दिनभर ताले में रखा जाता और अँधेरा होने के बाद बाहर निकाला जाता ताकि कोई उन्हें देख न ले। 
अब औरतें तो औरतें ही थीं। अपने पतियों की कुशल के लिए परेशान औरतों ने एक दिन एक मुसलमान युवक को वहाँ भेज दिया। मैं भी पिताजी के साथ भैंसों को पानी पिला रही थी। मैं नल पर बाल्टियाँ भर रही थी, मेरे पिता और चाचा उन्हें लेजाकर भैंसों के सामने रख देते। वह युवक कोठरी के दरवाजे पर कान लगाकर दोनों नौकरों से बात कर रहा था यह तो मैंने देखा था, उसने पंडितों की तरह धोती पहन रखी थी और उसके माथे पर तिलक भी था। उसके पूछने पर दोनों नौकरों ने कहा था कि ‘‘हमारी औरतों से कहना कि किसी तरह की कोई चिन्ता न करें हम यहाँ एकदम ठीक हैं। सेठ जी हमारा बहुत ध्यान रखते हैं।’’ फिर पिताजी ने मुझे वहाँ से भगा दिया।
मैं अकेली घर आ गई। फिर पता नहीं क्या हुआ कि अचानक ही बाहर सड़क से शोर सुनाई दिया, हम लोग जल्दी से दरवाजे बंद करके छत पर चढ़ गए। छत से हमने देखा एक हथठेले पर एक आदमी के ऊपर बोरियाँ डालकर ढक दिया गया था फिर भी खून से सनी बोरियों से उसके अधकटे हाथ-पैर लटक रहे थे। कुछ लोग शव के साथ रोते-पीटते चल रहे थे। साथ में घूँघट में दो औरतें भी थीं। बाद में पता चला कि वह तो वही मुसलमान युवक था जो हमारे नौकरों की खबर लेने आया था। किसी ने उसे पहचान लिया था तो वह कैसे बचता? लेकिन पुलिस सक्रिय हो गई थी। पुलिस को आता देखकर जल्दी से दो सरदार युवकों को महिलाओं वाले कपड़े पहनाकर शव का दाह संस्कार कर दिया गया और पुलिस चुपचाप वापस चली गई बिना कोई खोजबीन किए। जनता में रोष इसी बात का था कि यदि कोई हिन्दु मारा जाता है तो पुलिस चुपचाप वापस चली जाती है और यदि कोई मुसलमान मारा जाता है तो पुलिस एकदम सक्रिय होती है और त्वरित कार्यवाही की जाती है। यह भेदभाव क्यों? परन्तु कोई उत्तर किसी के पास नहीं था।


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लाचार द्रौपदी---- आशा शैली



लाचार द्रौपदी
न्याय?
कहाँ है न्याय?
कैसा होता है न्याय?
क्या तुमने सुना नहीं?
लाठी
जिसके हाथ में
होती है
भैंस
उसी की होती है
यही तो न्याय है
क्योंकि जब
शासन का धृतराष्ट्र अन्धा हो
और सत्ता की गांधारी
बाँध लेती है
अपनी आँखों पर
पक्षपात और
भ्रष्टाचार की पट्टी,
न्याय की तुला
दे देती है
कपट शकुनि के हाथों में
और उसकी संवेदना
जुड़ जाती है
कुव्यवस्था के दुर्धोधनों के साथ
तब कपट शकुनि
चलता है अपनी
कुटिल और घिनोंनी चालें
सत्य और धर्म के
युधिष्ठिर हारते हैं हर दाँव
और हर बार
दाँव पर लगती है
निरीह/लाचार द्रौपदी


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क्या कहेंगे आप इसे ----- आशा शैली



एक अच्छे मित्र का कहना था कि बड़े कवियों को छोेटे कस्बे में बुलाना उनका भाव कम करना होता है। पर इन दिनों मुझे दो गाँवों में जाने का अवसर अनायास उपलब्ध हुआ और मैंने पाया कि जो प्यार और अपनापन गाँव वाले श्रोता देते हैं उसके सामने कवि सम्मेलनों से मिलने वाली राशि कोई माने नहीं रखती। पहले तो लखनऊ के निकटवर्ती गाँव इटोंजा जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहाँ डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपने पति की समृति में प्रत्येक वर्ष दो लोगों को सम्मानित करती हैं। मेरे अतिरिक्त एक समाज सेवी 94 वर्षीय महिला श्रमती सुशीला मोहनका के सहित स्थानीय कवियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। देर तक चले इस कार्यक्रम में पूरा पाण्डाल खचाखच भरा रहा। किसी ने भी उठकर जाने की जल्दी नहीं मचाई। पर यह कार्यक्रम दिन का था यह कहा जा सकता है।
परन्तु दूसरा कार्यक्रम तो रात का था। यह बरेली के निकटवर्ती गाँव लांगुरा में था। वहाँ पहली बार ही कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था आयोजकों को भी संदेह कि ग्रामीण लों सहयोग देंगे या नहीं। मुझे अध्यक्ष बनाया गया। जैसा कि होता है, अध्यक्ष को सुनने वाले बस प्रबंधक ही बचते हैं किन्तु यहाँ भी अंत तक पैरा पण्डाल भरा रहा। न केवल फरा रहा अपितु दूसरे दौर की फरमाइश भी पूरी करनी पड़ी। श्रोता फिर भी उठने को तैयार नहीं थे। मैं क्योंकि लगातार सफर से हुरी तरह थकी हुई थी, अतः क्षमा मांगनी पड़ी। फिर भी शरोता कह रहे थे अब कब आएँगे आप लोग, क्या कहेंगे आप इसे।


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ग्राम लंगुरा में एक भव्य कविसम्मेलन



आरती प्रकाशन लालकुआँ के संयोजन में
बरेली के ग्राम लंगुरा में एक भव्य कविसम्मेलन का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम की अधयक्छता आशा शैली ने की ,मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार विनय साग़र जायसवाल रहे ।
प्रथम चरण में आयोजक परिवार की
महिलाओं ने आगुंतक कवि/कवयित्रियों
का स्वागत तिलक आरती, उपहार एवं
नक़द धन राशि देकर किया।
मंजू पान्डेय उदिता(हल्द्वानी)की
वाणी वंदना से प्रारंभ हुए कार्यक्रम का संचालन सत्यपाल सिंह सजग(लालकुआँ) ने सफलता पूर्वक किया।
देर रात चले कवि सम्मेलन में स्थानीय कवि हरिशंकर शर्मा, पुष्पा जोशी (शक्ति फार्म)किरन पान्डेय, मन्जू पान्डेय
उदिता (दोनों हल्द्वानी) ग़ज़लकार के पी
सिंह बहराईची,सत्यपाल सिंह सजग, संपादक शैलसूत्र आशा शैली (दोनों लालकुआँ) संपादक गीत प्रिया शिवशंकर यजुर्वेदी,वरिष्ठ साहित्यकार विनय साग़र जायसवाल (दोनों बरेली) ने अंत तक उपस्थित श्रोताओं को विभिन्न रसों की
कविताओं/ग़ज़लों से भाव विभोर किये रखा ।इस बीच हास्य व्यंग कवि सत्यपाल सिंह सजग की कृति "सजग की कविताएं"
का लोकार्पण मुख्य अतिथि व अध्कछा
द्वारा किया गया।

निवेदक ,आयोजक
राम प्रकाश शर्मा, श्रीमती वीरा शर्मा
ग्राम लंगुरा (बरेली)


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श्रीमती कुहेली भट्टाचार्य जी



वेहद अफसोस है साहित्य जगत की विलक्षण प्रतिमा श्रीमती कुहेली भट्टाचार्य जी का दि. 25/11/2014 को देहावसान हो गया । 
आज दिनांक 04/12/2014 को श्रीमती आशा शैली जी के निवास पर शोक सभा आयोजित की गयी जिसमें उपस्थित श्रीमती आशा शैली जी हल्द्वानी से श्रीमती मन्जू पाण्डे उदिता,डा.श्री वेद प्रकाश प्रजापति अंकुर, काशीपुर से श्री मनोज आर्य जी किच्छा से श्री नवी अहमद मंसूरी जी शक्ति फार्म से श्री प्रताप दत्ता जी, श्री समीर डे, श्री सुकुमार सरकार जी, सुश्री पुष्पा जोशी प्राकाम्य, कार रोड बिन्दुखत्ता से श्री नवीन तिवारी जी लालकुआँ से श्री राधेश्याम जी मै सत्य पाल सिंह सजग सेन्चुरी पल्प एण्ड पेपर से सभी ने दिवंगत आत्मा के प्रति शोक सम्वेदना व्यक्त की । श्री उदय किरोला जी, श्री रमेश चन्द्र किरमोलिया श्री राम सनेही लाल शर्मा यायावर जी ने शैली जी को फोन करके शोक सम्वेदना व्यक्त की ।
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लगता है अनमोल रत्न खो गया हमारा यहीं कहीं
आज हमारे बीच कुहेली भट्टाचार्य नहीं रहीं
विधि का लिखा विधान आजतक कोई वदल ना पाया है
परमेश्वर की लीला का ना पार किसी ने पाया है
साहित्य जगत को यह भारी नुकसान उठाना ही होगा
अव इस गम को अपने सीने वीच छुपाना ही होगा
ब्रह्मलीन हो गयीं आपकी यादें बहुत सतायेंगी
कुहेली भट्टाचार्य जी अब नहीं लौटकर आयेंगी
हिन्दी बांग्ला असम कहानी लेखों की उत्पादक थीं
आप हमारे शैल सूत्र की वर्तमान सम्पादक थीं
कोयल जैसी कूक कुहेली कहां तुम्हें अव पायें हम
किस मन्दिर में किस मस्जिद में किस गिरजे में जायें हम
जब तक है यह सृष्टि और जब तक है भारत प्यारा
जग में जगमग ज्योतित चमके कुहेली नाम तुम्हारा
कुहेली भट्टाचार्य को सद्भाव समर्पण करता हूँ
नम आँखो से नमन उन्हें श्रद्धांजलि अर्पण करता हूँ ।


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शैल सुत्र जुलाई सितम्‍बर 2014 अंक PDF वर्जन



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शैल सूत्र लाई सितम्‍बर 2014 अंक


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जब तलक लाली हमारे खून के कतरे मैं है
कौन कहता है वतन की आबरू खतरे मैं है
मैं भी किसी मिटटी का बना हूँ
मेरी पहचान लिख देना
मेरे कफन के किसी कोने पे हिदुस्तान लिख देना
----- आनंद गोपाल सिंह बिष्ट


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शैल सूत्र स्‍नेही

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