क्या कहेंगे आप इसे ----- आशा शैली
एक अच्छे मित्र का कहना था कि बड़े कवियों को छोेटे कस्बे में बुलाना उनका भाव कम करना होता है। पर इन दिनों मुझे दो गाँवों में जाने का अवसर अनायास उपलब्ध हुआ और मैंने पाया कि जो प्यार और अपनापन गाँव वाले श्रोता देते हैं उसके सामने कवि सम्मेलनों से मिलने वाली राशि कोई माने नहीं रखती। पहले तो लखनऊ के निकटवर्ती गाँव इटोंजा जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहाँ डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपने पति की समृति में प्रत्येक वर्ष दो लोगों को सम्मानित करती हैं। मेरे अतिरिक्त एक समाज सेवी 94 वर्षीय महिला श्रमती सुशीला मोहनका के सहित स्थानीय कवियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। देर तक चले इस कार्यक्रम में पूरा पाण्डाल खचाखच भरा रहा। किसी ने भी उठकर जाने की जल्दी नहीं मचाई। पर यह कार्यक्रम दिन का था यह कहा जा सकता है।
परन्तु दूसरा कार्यक्रम तो रात का था। यह बरेली के निकटवर्ती गाँव लांगुरा में था। वहाँ पहली बार ही कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था आयोजकों को भी संदेह कि ग्रामीण लों सहयोग देंगे या नहीं। मुझे अध्यक्ष बनाया गया। जैसा कि होता है, अध्यक्ष को सुनने वाले बस प्रबंधक ही बचते हैं किन्तु यहाँ भी अंत तक पैरा पण्डाल भरा रहा। न केवल फरा रहा अपितु दूसरे दौर की फरमाइश भी पूरी करनी पड़ी। श्रोता फिर भी उठने को तैयार नहीं थे। मैं क्योंकि लगातार सफर से हुरी तरह थकी हुई थी, अतः क्षमा मांगनी पड़ी। फिर भी शरोता कह रहे थे अब कब आएँगे आप लोग, क्या कहेंगे आप इसे।
परन्तु दूसरा कार्यक्रम तो रात का था। यह बरेली के निकटवर्ती गाँव लांगुरा में था। वहाँ पहली बार ही कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था आयोजकों को भी संदेह कि ग्रामीण लों सहयोग देंगे या नहीं। मुझे अध्यक्ष बनाया गया। जैसा कि होता है, अध्यक्ष को सुनने वाले बस प्रबंधक ही बचते हैं किन्तु यहाँ भी अंत तक पैरा पण्डाल भरा रहा। न केवल फरा रहा अपितु दूसरे दौर की फरमाइश भी पूरी करनी पड़ी। श्रोता फिर भी उठने को तैयार नहीं थे। मैं क्योंकि लगातार सफर से हुरी तरह थकी हुई थी, अतः क्षमा मांगनी पड़ी। फिर भी शरोता कह रहे थे अब कब आएँगे आप लोग, क्या कहेंगे आप इसे।
Tags: आशा शैली, सम्मेलन
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