पड़ोसी
कूड़ा तो कोराँ ने जानबूझकर फेंका था और फिर जब सिर उठाकर उसने जमना के दरवाजे की ओर देखा तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया। कहाँ तो उसे आशा थी कि आज जमना से जमकर लड़ाई होगी। और कहाँ जमना ने ऊपर देखा भी न था। क्योंकि जमना और उसकी दोनों बेटियाँ घर का सामान बाँध रही थीं।
कोराँ का दिल हलक में आकर फँस गया। पूछे बिना रहा नहीं जा रहा था। ये लोग कहाँ जा रहे हैं? अगर जमना मायके जा रही होती तो सारे घर का सामान क्यों बांधा जाता। रसोई के बाहर भी तो एक बड़ी–सी पेटी रखी थी। आखिर क्या हो रहा है? यह गोरखधंधा उसकी समझ से बाहर था।
कोई और दिन होता तो कोराँ झट जाकर पूछ आती। भला पड़ोसी की कोई बात उससे कैसे छुप सकती है, लेकिन.....ये लेकिन एक बड़ा–सा प्रश्नचिह्न सामने खड़ा कर रहा था। कल ही तो पानी की खातिर उन दोनों की जमकर लड़ाई हुई थी, यहाँ तक कि कोराँ ने जमना की चोटी पकड़ ली थी, जिस पर जमना ने कसकर एक थप्पड़ कोराँ के मुँह पर दे मारा था। इसीलिए सिखा सके, किंतु यहाँ तो मामला ही उलट गया था। झाड़ू उठाकर कोराँ ने कूड़ा समेटा और पिछवाड़े का दरवाजा खोलकर टीन में डाल दिया।
दोपहर को गुरदीप खाना खाने आया तो कोराँ का उतरा मुँह देखकर बोला, ‘‘करमाँ वालिए! आज क्या हो गया?’’
‘‘जमना के घर में सामान बँध रहा है। शायद वे लोग मकान बदल रहे हैं।’’
‘‘वो जाते–आते मैंने भी देखा है।’’
‘‘पता नहीं कहाँ जा रहे हैं।’’ कोराँ उदास हो गई।
‘‘जाने दो भई।’’ गुरदीप कौर मुँह में डालता बोला, ‘‘रोज की किचकिच गई।’’
‘‘हुँह! तुम ठहरे मर्द, निरे निर्मोही, अरे, हम लड़ते हैं? इसका मतलब हम दुश्मन हुए क्या?’’
गुरदीप कौर हाथ में पकड़े कोराँ का मुँह ताक रहा था। दरवाजे की आवाज से दोनों ने चौंककर देखा : जमना और सुरेश दोनों खड़े थे।
‘‘भाई साहब, हमने मकान बदल लिया है।’’ जमना का पति सुरेश आगे बढ़ा, ‘‘सोचा, चलती बार मिल लें।’’
‘‘माफ करना जमना, कल मैं गुस्से में बहुत ज्यादती कर गई। दरअसल अंदर पानी खत्म था।’’ कोरा की आँखें झुकी जा रही थीं, ‘‘क्या इतनी–सी बात पर नाराज होकर घर बदलते है?’’
‘‘नहीं, यह बात नहीं ! मुझे बच्चों के साथ घर छोटा पड़ रहा था। इसलिए हम कब से मकान की तलाश में थे। कल अगर हम लड़ते नही तो मैं खुद ही बताने वाली थी।’’ जमना शरारतन थोड़ा–सा मुस्कराई, ‘‘वैसे मैं ही कहाँ कम रही! क्यों?’’
‘‘अच्छा ! आती रहना।’’ और दोनों झपटकर गले लग गई। दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। आँसुओं के साथ मन का मैल भी धुलकर बह रहा था।
Tags: लघुकथा
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4 Respones to "पड़ोसी"
bahut sunder manav man ko koi nahi samajh sakta..
19 नवंबर 2010 को 6:28 pm बजे
padhate to bahut kuchh rahte hai yaha vaha jaha taha par jo yad rah jaye aur dil me bas jaye ...aisa kuchh yaha padha....yatharth se judi bhavnayen ...
2 दिसंबर 2010 को 7:09 pm बजे
सुन्दर लघु कथा!
आशा शैली जी तो सभी विधाओं में अच्छा लिखतीं हैं!
11 फ़रवरी 2011 को 7:30 am बजे
सरल हृदय लोगों का यही हाल है - सच्चाई भी ।
11 फ़रवरी 2011 को 9:31 pm बजे
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