चाँद भी छुप कर अकेले मैं तो रोता होगा
अपने छेहरे पे लगा दाग जो देखा होगा
छा गया होगा अँधेरा ही अँधेरा
शर्म के मारे वो जिस रात न निकला होगा
रात तो सर्द न थी
फिर ये शबनम कैसी
छंद की आखों से ही आंसू टपका होगा
जरा सी ठोकर पे चीख उठती है दुनिया
कैसे वो सदियों से इस दर्द को सहता होगा
---------------------------------- आनंद गोपाल सिंह बिष्ट
Tags: कविता
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